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भारत-नेपाल शान्ति तथा मैत्री सन्धि पर सवाल

भारत-नेपाल शान्ति तथा मैत्री सन्धि पर सवाल
प्रदीप कुमार नायक
स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार
भारत और नेपाल के बीच रोटी-बेटी का सम्बंध माना जाता हैं।दोनों देशों के बीच धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत लगभग एक समान हैं।अगर भगवान श्रीराम भारत के हैं तो राजा जनक और सीता नेपाल के हैं।अगर महात्मा बुद्ध को निर्वाण प्राप्ति भारत में हुई थी तो उनका जन्म नेपाल के लुम्बिनी में हुआ था।भारत में लाखों नेपाली रोजी-रोटी कमा रहे हैं और यहीं रह रहे हैं।नेपाल में भी लाखों भारतीय रह रहे हैं।दोनों देशों में हिन्दी भाषा का बोलबाला हैं।काशी का विश्वनाथ मंदिर व काठमांडू का पशुपतिनाथ मंदिर दोनों देशों की एकता को दर्शाता हैं।इसलिए दोनों देशों का सम्बंध मैत्री पूर्ण तो रहे हैं। यहां बता दें कि इन दोनों देशों के संबंधों में 31 जुलाई 1950 में काठमांडू में हस्ताक्षरित की गई एक अंतर्राष्ट्रीय सन्धि हैं, जिसके अंतर्गत दोनों देशों के संबंध निर्धारित किये गए हैं।इसके अनुसार दोनों देशों की सीमा एक-दूसरे नागरिकों के लिए खुली रहेगी और उन्हें एक दूसरे के देशों में बिना रोक टोक रहने और काम करने की अनुमति होगी।यही सन्धि दोनों देशों के बीच एक गहरा मित्रता का संबंध स्थापित करती हैं।लेकिन बीच-बीच में दोनों देशों के संबंधों में सन्धि के पुनरावलोकन के सवाल पर खटास भी उत्पन्न होते रहे हैं।

नेपाल की पहली कम्युनिस्ट सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने पहली बार औपचारिक तौर पर भारत के समक्ष इस प्रस्ताव को रखा था।सन 1999 में नेपाल के दौरे पर आए भारतीय विदेश मंत्री यशवन्त सिंह के समक्ष भी इस मुद्दें पर बातचीत हुई थी।उसके बाद माओवादी सरकार के समय में भी इस मामले को भारत के समक्ष रखा गया था।2014 और 2019 में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नेपाल आए तो नेपाल अन्य प्रस्तावों के साथ 1950 में भारत और नेपाल में सम्पन्न शान्ति और मैत्री सन्धि पुनरावलोकन का प्रस्ताव भी रखा।
परन्तु हर बार भारत की ओर से इसे टाल दिया जाता रहा हैं।प्रस्तावकर्ता नेपाल की ओर से भी कभी सन्धि को लेकर समीक्षा के साथ बैठने का काम नहीं किया गया।वैसे सन्धि में यह प्रस्ताव भी पारित किया गया हैं कि किसी एक पक्ष द्वारा एक साल पहले दूसरे पक्ष को सूचना देकर सन्धि को खारिज किया जा सकता हैं।
भारत और नेपाल जैसे भौगोलिक और सांस्कृतिक रूपसे विशिष्ट संबंध वाले देशों के बीच विधमान इस सन्धि की खारिज से उत्पन्न होने वाला खालीपन दोनों ही देशों के लिए घातक हो सकता हैं।शायद इसलिए सड़क पर खारिज के दमदार नारे लगाने वाले सियासी ताकत भी सत्ता के आसपास पहुचते ही सन्धि पुनरावलोकन की बात करने लगते हैं।जो भी लेकिन इस समस्या को उठाना और आश्वासन देने के अलावा इस पर अब तक कोई खास बातचीत नहीं हो रही हैं।
नेपाल में तत्कालीन परिवारवादी निरंकुश राणा सरकार के बाद प्रजातंत्र,पंचायत फिर बहुदलीय प्रजातंत्र और अब संघीय लोकतंत्र के चार चरणों मे राजनीतिक परिवर्तन हो चुकी हैं। इस बीच भारत की सत्ता के गलियारों में काफी बदलाव आ चुका हैं।ऐसे में दोनों देशों को साथ बैठकर विचार-बिमर्स करना जरूरी हैं।लेकिन ऐसा नहीं हो रहा हैं।
सन्धि की आवश्यकता को आज भी कई लोग मानते हैं,कि शान्ति और मैत्री के नाम पर की गई 1950 की यह सन्धि नए स्वतंत्र भारत की ओर से नेपाल पर दबाब बनाकर की गई थी।कुछ लोगों का कहना है कि राणा प्रधानमंत्री मोहन शमसेर ने देश में बढ़ते राणा बिरोधी आन्दोलनसे अपनी सत्ता बचाने के लिए इस सन्धि पर हस्ताक्षर की थी।जाहिर हैं उस समय नेपाल में राणा विरोधी नरेश त्रिभुवन और नेपाली कांग्रेस जैसे ताकतों को भारत समर्थन कर रहा था।मोहन शमसेर भारत को खुश रखना चाहते थे।इसलिए उन्होंने भारत के प्रस्ताव पर ही सन्धि की।
बताया जाता हैं कि सन्धि पर हस्ताक्षर करके मोहन शमसेर बहुत ही खुश थे।अंग्रजों को जाने के बाद आज़ाद भारत ने स्वतंत्र पड़ोसी नेपाल के साथ संबंधों को नए रूप में परिभाषित करना शुरू कर दिया।सन्धि होने से पहले 17 मार्च 1950 को भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राज्य सभा में कहां कि नेपाल पर होने वाले बाहरी आक्रमण को भारत बर्दाश्त नहीं करेगा।उन्होंने यह भी कहां कि इसके लिए नेपाल के साथ कोई सैनिक गठबंधन की जरूरत नहीं हैं।
भारत की साम्यवादी पार्टी के कुछ कम्युनिस्टों ने 1948 में अंग्रेज से आज़ाद दार्जिलिंग, सिक्किम, भाक्सु, देहरादून के साथ सामंतवादी शासन वाले नेपाल को मिलाकर भारत के अन्दर ही गोरखास्थान राज्य बनाने की मांग की थी।सरदार पटेल ने भारत और नेपाल के बीच सम्पन्न शान्ति और मैत्री सन्धि के बाद खत लिखकर बता दिया था कि उत्तरी क्षेत्र भौगोलिक और जातीय दृष्टिकोण से भारत के लिए बेहद संवेदनशील हो सकते हैं।
इन घटना क्रम से पता चलता हे कि भारत उत्तर की ओर से सुरक्षा पर विशेष रूप से सतर्क रहना चाहता हैं।इन्हीं विचारों के बीच चीन को ताक पर रखकर भारत ने उत्तर में हिमालय तक अपने सुरक्षा प्रभाव को बरकरार रखते हुए उसके अन्दर नेपाल को स्वतंत्र मानने की नीति तय की।
सन 1950 की सन्धि के आठवीं बार मे भारत और नेपाल स्थित अंग्रेज सरकार के बीच हुए सन्धि समझौता की खारिज का उल्लेख किया गया हैं।यह भारत और नेपाल के संबंधों का परिवर्तन संदर्भ में नवीकरण था।दूसरी बात भारत और नेपाल के लिए सन्धि करना इसलिए जरूरी था कि हिमालय के उस पार तिब्बत में साम्यवादी चीन की नजरें लगी हुई थी।उस समय दक्षिण एशिया की सभी सरकारों में जबरदस्त साम्यवादी शासन का माहौल था।यहीं शासन सन्धि का प्रमुख कारण बना।
भारत ने नेपाल को अपने प्रभाव में रखते हुए चीन के खिलाफ एक बफर जोन के रूप में प्रयोग करना चाहता था तो नेपाल भी भारत को खुश रखते हुए नेपाल में संभावित सत्ता विरोधी आंदोलन और उत्तर में चीन के प्रभाव से एक साथ बचना चाहता था।राणाओं के खिलाफ नेपाल में आंदोलन कर रहीं प्रमुख राजनीतिक पार्टी नेपाली कांग्रेस ने भी इस सन्धि का विरोध नहीं किया।
नेपाल की साम्यवादी पार्टी को यह सन्धि भारत के आयोजन में चीन के खिलाफ एक गठजोड़ होने के कारण पसंद नही था।ब्रिटेन और कई पश्चिम के देश जिनका नेपाल के साथ संबंध था।उनहोंने भी चीन के खिलाफ लक्षित होने के कारण सन्धि के पक्ष में मौन समर्थन किया।भारत तो अपनी इस रणनीति पर बहुत हद तक सफल दिखाई दिया।लेकिन मोहन शमशेर न तो आंदोलन के कोपभाजन बनने से बच पाएं न ही नेपाल के प्रति चीन के बाद वाले दिनों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने का काम किया।चीन – नेपाल में शालीन दिखाने वाली नीति के जरिए अपना प्रभाव विस्तार करने में सफल रहा।उसकी यही रणनीति आजतक जारी हैं।
इस सन्धि की सबसे महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इसकी शुरुआत भारत और नेपाल दोनों देश एक दूसरे की पूर्ण सार्वभौमता, भौगोलिक अखंडता और स्वतंत्रता को सम्मान करने की प्रतिबद्धता के लिए की थी।आज़ाद भारत और नेपाल के बीच इस प्रतिबद्धता ने एक सकारात्मक और नए आयाम की ओर संकेत दिया हैं।लेकिन दोनों देशों के बीच के संबंधों में विश्वास का अभाव महसूस किया जाता रहा हैं।दोनों देशों के बीच बिना किसी समाधान के सीमा पर लम्बे अरसे से चल रहे विवाद जैसे मसलों ने स्थिति को असहज सा बना दिया हैं।
सन्धि में किसी भी पड़ोसी देश के साथ हुई विवाद और असमझदारी से दोनों देश के संबंधों में दरार आने की संभावना के लिए एक दूसरे को जानकारी देने का प्रावधान हैं।सन्धि में यह भी कहां गया था कि किसी भी देश पर बाहरी आक्रमण को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।साथ ही ऐसी परिस्थिति से निपटने के लिए आपस मे विचार कर कदम उठाया जाएगा।यह बात दोनों देशों के लिए एक सैनिक गठजोड़ की ओर संकेत करता हैं।वास्तव में ऐसा कभी नहीं हुआ।भारत ने चीन और पाकिस्तान से युद्ध कर चुका हैं।उस वक़्त नेपाल को भारत का साथ देना चाहिए।
नेपाल अब तक भारत की सुरक्षा अवधारणा की परिसीमा से बाहर निकलकर अन्य देशों के साथ संबंधों का विकास कर चुका हैं।या फिर यह भी हो सकता हैं कि चीन के साथ अच्छे संबंधों को देखते हुए भारत ने नेपाल के साथ विचार करना आवश्यक नहीं समझा।दोनों निकट पड़ोसी होने के बावजूद भी विश्वास के आधार पर नकारात्मक असर पड़ने लगा हैं।
सन्धि में कहां गया हैं कि नेपाल अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक अस्त्र शस्त्र और युद्ध सामग्री भारत से लाने को स्वतंत्र हैं।इसके लिए दोनों मिलकर काम करेंगे।बाद के दिनों में नेपाल अस्त्र शस्त्र भारत से ही नहीं चीन से भी लाने लगे।भारत की सुरक्षा के लिए नेपाल का यह कदम चिन्ता का विषय था।नेपाल ने दुनिया के सामने शांति क्षेत्र का प्रस्ताव रखा तो एक सौ पचास देशों ने इसका समर्थन किया।लेकिन भारत ने नहीं किया।भारत का मानना था कि नेपाल इस प्रस्ताव के जरिए भारत के साथ रणनीतिक कार्ड खेल रहा हैं।तब तक नेपाल भारत का ही नहीं बल्कि अमेरिका, चीन और ब्रिटेन जैसे देशों के लिए भी रणनीतिक स्थल बन चुका था।
सत्तर और अस्सी के दशक में दोनों देशों ने पड़ोसी नागरिकों पर विदेशी करार देते हुए कई स्थानों पर अपनी जमीन से निकाल बाहर किया।उससे दोनों सरकारों की महान मित्रता का कुरूप चेहरा नजर आया।काठमांडू में वर्क परमिट के नाम पर कई भारतीय मजदूरों को बाहर निकाला गया तो भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र से कई नेपालियों को भगाया गया।अभी भी नेपाल में मधेसियों को विदेशी होने का धब्बा लगा हुआ हैं।
1950 की इस सन्धि का उद्देश्य सुरक्षा की चिंता थी।जिसके स्वरूप में अब बहुत बदलाव आ चुका हैं।फलस्वरूप दोनों देशों ने इसे सिर्फ एक रणनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहा कभी भी मित्रता और विश्वास का धरोहर नहीं समझा।असल में नेपाल और भारत संबंध ऐसे ही आउट डेटेड और जीर्ण कागजातों के बल पर जबरदस्ती आगे बढ़ाने की सोच कई कठिनाइयों को निमंत्रण देती रहेगी।
सुरक्षा की चिन्ता अब चीन और भारत का अकेला सवाल नहीं रहा।बदलते समय के साथ अपराध और आतंक का भी वैश्वीकरण हो चुका हैं।भारत कई बार कह चुका हैं कि नेपाली भूमि पर भारत के खिलाफ विदेशी एजेंसियां और भारत विरोधी आतंकवादी सक्रिय हैं।उसी तरह भारतीय भूमि से ही नेपाल में माओवादियों ने एक दशक से भी अधिक समय तक खूनी संघर्ष संचालन किया।
अब शीत युद्ध कालीन सामरिक राष्ट्रवाद की जगह बदलते समय के साथ आर्थिक राष्ट्रवाद ने लेना शुरू कर दिया हैं।इस नई सोच के प्रति सकारात्मक होना नेपाल और भारत जैसे देशों के हित में हैं।सन 1950 की भारत और नेपाल शान्ति और मैत्री सन्धि को लेकर अब बहस करने के अलावा बदलते समय के प्रवाह में इसे पुनरावलोकन व संशोधन करना दोनों देशों के हित में होगा।
लेखक – स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं, समाचार पत्र एवं चैनल में अपनी योगदान दे रहे हैं।
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