जब कामकाजी दफ्तरों और शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत आधार पर भेदभाव के मामले सामने आ रहे हैं, उसी समय में भारत के दलित युवा भेदभाव वाली परंपराओं को चुनौती भी दे रहे हैं.
पिछले साल के महीने में बुलंदशहर जिले के ग्रामीण इलाके में एक विवाह समारोह में 1 दलित दूल्हे शामिल थे. अपनी बारात में ये दलित दूल्हा घोड़ी पर बैठे हुए थे.
छोटे स्तर पर ही सही, लेकिन इस इलाके के लिए एक अहम बदलाव था क्योंकि अब तक यहां बारात में घोड़ों पर बैठने की परंपरा केवल सवर्णों में ही थी.
यही वजह है कि इस शादी समारोह को लेकर इलाके में जातिगत तनाव उत्पन्न हो गया था और इस आयोजन के दौरान पुलिस सुरक्षा मांगी गई थी।
इस विवाह के आयोजक में शामिल रजत कुमार ने न्यूज एजेंसी को बताया कि दलित समुदाय यह बताना चाहता है कि वे अब पूरे प्रदेश में किसी तरह का भेदभाव नहीं सहेंगे. रजत के मुताबिक उत्तर प्रदेश पश्चिम इलाके के ज़्यादातर दलितों ने अच्छी शिक्षा हासिल की है.
भेदभाव को समाप्त करने के संदेश
उन्होंने बताया, “बहुत बड़ी संख्या में छात्रों ने इंजीनियरिंग, मेडकिल और लॉ की पढ़ाई की है. क्या वे अपने जीवन में किसी भी भेदभाव का सामना करेंगे? भेदभाव को समाप्त करने के संदेश के साथ ही हमने बारात निकाली थी.”
यह कोई इकलौती घटना नहीं है. पूरे भारत में ऐसे मामलों की संख्या बढ़ रही है जहां दलित समुदाय के लोग हरसंभव तरीके से समाज में अपने अस्तित्व को दृढ़ता से रख रहे हैं- चाहे वह घोड़े पर चढ़ने या फिर मूछें रखने जैसी सामान्य दिखने वाली बातें ही क्यों ना हो.
दलितों की बढ़ती आकांक्षाओं के चलते भी दलित और गैर-दलित समुदाय के बीच संघर्ष बढ़ रहा है. दिलचस्प यह है कि इनमें से ज्यादातर लोग पढ़े लिखे हैं और भीमराव आंबेडकर के उन विचारों से प्रभावित हैं जिसमें उन्होंने दलितों से शिक्षित होने, एकजुट होने और सम्मानजनक जीवन जीने के लिए संघर्ष करने का संदेश दिया था।
दलित अधिकार कार्यकर्ता और लेखक मार्टिन मैकवान के मुताबिक दलितों का प्रतिरोध एक तरह से शोषित वर्ग के लोगों की ओर से मिलने वाली चुनौतियों की शुरुआत भर है.
वे कहते हैं, “ऐसे मामलों की संख्या बढ़ती जाएगी क्योंकि शिक्षित दलित अब अपनी आजीविका के लिए गांव और शहर के अमीर लोगों के रहम पर नहीं हैं. उनकी निर्भरता अब शहरी क्षेत्रों के श्रम बाजार पर टिकी है.”
लहोर गांव के मेहुल परमार का उदाहरण लीजिए, वह पिछले महीने घोड़े पर चढ़कर अपनी बारात में गए थे. मेहुल गांव में रहते हैं लेकिन काम अहमदाबाद शहर में करते हैं. उन्होंने न्यूज एजेंसी से कहा, “अगर हम लोग कमाते हैं और शादी में घोड़े का खर्च उठा सकते हैं तो हम क्यों नहीं घोड़े पर बैठ सकते हैं?” मेहुल अपने गांव के दलितों में पहले ऐसे शख्स हैं जो अपनी बारात में घोड़े पर बैठ पाया.
ऐसा ही एक मामला मई महीने में ही उत्तराखंड के टिहरी जिले में देखने को मिला था. 23 साल के दलित जीतेंद्र दास ने सवर्णों के साथ एक ही टेबल पर बैठकर खाने की हिम्मत दिखाई थी. उनकी पीट पीटकर हत्या कर दी गई थी. जीतेंद्र की मां और बहन, उन पर निर्भर थीं. जीतेंद्र की मौत के बाद अब इन दोनों के पास जितेंद्र की मोटरसाइकिल और एकमात्र पासपोर्ट साइज तस्वीर बची हुई है।
ऐसे संघर्ष बढ़ने की दो बड़ी वजहें हैं- दलितों में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है. इसके अलावा शहरी क्षेत्रों में उनका एक्सपोजर भी बढ़ा है.
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) के 2021 के आंकड़ों के मुताबिक 2018-19 में पहली से लेकर 12वीं कक्षा तक में नामांकन में दलितों का अनुपात राष्ट्रीय अनुपात से ज्यादा था. हालांकि उच्च शिक्षा में वे राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं. उच्च शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों का राष्ट्रीय औसत 27.3 है जबकि यह दलितों में 23.1 है.
नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की ओर से 2019 में प्रकाशित 71वें राउंड के अध्ययन के मुताबिक 7 साल और उससे ज्यादा उम्र के लोगों में राष्ट्रीय साक्षरता की दर 79.8 प्रतिशत है जबकि समान वर्ग में दलित समुदाय के छात्रों की साक्षरता की दर 68.8 प्रतिशत है।
दलितों में साक्षरता की दर बढ़ी
इस अध्ययन का जिक्र करते हुए मैकवान कहते हैं, “हाशिए के दूसरे समुदायों की तुलना में दलितों में साक्षरता की दर तेजी से बढ़ रही है. इसी वजह से वे परंपराओं को चुनौती दे रहे हैं। आंकड़े ही नहीं विशेषज्ञों के मुताबिक भी, दलितों में शिक्षा का स्तर बढ़ने से उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ी हैं. अब वह ये बिलकुल नहीं मानते हैं कि भेदभाव और उपेक्षा ‘उनकी नियति’ है। दलित सरकारी नौकरियों में जगह बना रहे हैं, साथ ही वे छोटा-मोटा कारोबार खड़ा कर रहे हैं, स्टार्टअप्स चला रहे हैं. दलित इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (डिक्की) ने कई दलित युवाओं को व्यापार संबंधी ट्रेनिंग दी है और उन्हें नए उद्योग धंधों में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया है.
डिक्की के अध्यक्ष मिलिंद कांबले ने न्यूज एजेंसी से कहा कि दलितों ने अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए लंबा संघर्ष किया है और संघर्ष की ऐसी घटनाएं बेड़ियों को तोड़ने का आख़िरी चरण साबित होंगी. उन्होंने कहा, “सवर्ण ऐसी घटनाओं के प्रति अपने प्रतिशोध को लंबे समय तक कायम नहीं रख पाएंगे क्योंकि वे दलितों को लंबे समय तक दबाए रखने में सक्षम नहीं होंगे क्योंकि दलित ज्यादा से ज्यादा ऐसी घटनाएं दोहराएंगे. आने वाले दिनों में ज्यादा दलित घोड़ों पर बैठेंगे, ज्यादा दलित सवर्णों के सामने बैठकर खाएंगे क्योंकि बहुत सारे दलित शिक्षा हासिल कर रहे हैं.”
हालांकि राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण की राय अलग है. उनके मुताबिक, ‘जब तक ऐसी घटनाएं जनांदोलन नहीं बनेंगी तब तक राजनीतिक दल दलितों के मुद्दों में दिलचस्पी नहीं लेंगे. जब तक राजनीतिक दल इसे राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाएंगे तब तक ज़मीनी स्तर पर दलित समुदाय के जीवन पर बदलाव होना मुश्किल है.’
‘अत्याचार के मामले भी बढ़ेंगे’
विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि इसका मतलब यह नहीं है कि दलितों पर अत्याचार खत्म हो जाएंगे. विशेषज्ञों के मुताबिक आने वाले दिनों में दलितों पर अत्याचार के मामलों की संख्या भी बढ़ेगी. मैकवान कहते हैं, “दलितों का एक बड़ा तबका अभी भी शिक्षा से वंचित है.”
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि ऐसी घटनाओं का इस्तेमाल केवल राजनीतिक फायदे के लिए किया जाता है. जब तक यह बड़ा आंदोलन नहीं बनेगा तब तक इससे समुदाय को कोई फायदा नहीं होगा। राजनीतिक विश्लेषक बद्रीनारायण ने हमको को बताया कि ऐसी घटनाओं का कुछ सामाजिक असर भले होता हो लेकिन कोई राजनीतिक असर नहीं पैदा होता है। उन्होंने बताया, “रानजीतिक पार्टियां जल्दी इन घटनाओं को भूल जाती हैं.” ये घटनाएं सामाजिक जाति व्यवस्था को चुनौती देती हैं लेकिन राजनीतिक दल समाज में बड़े बदलाव के लिए बड़ा आंदोलन खड़ा करने में असमर्थ रहे हैं. बद्रीनारायण कहते हैं, “दलितों पर अत्याचार के मुद्दे पर जब तक बड़ा आंदोलन नहीं शुरू होता तब तक सामाजिक सुधार बेहद मुश्किल है”।
हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि प्रतिरोध के छोटे-मोटे दलित आंदोलन, शिक्षित दलितों के निजी विकास भी बड़े आंदोलनों जितने ही महत्वपूर्ण हैं। दलित कार्यकर्ता रजत कुमार का मानना है कि बिहार जैसे राज्यों में दलितों पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ संघर्ष तो लंबे समय से हो रहे हैं लेकिन वह मीडिया में जगह नहीं बना पाता था.
असुरक्षा का भाव
रजत कुमार कहते हैं, “अब तो शोषित समुदाय के लोग भी मीडिया में आ गए हैं, इसलिए ऐसे मामले मीडिया में जगह बना रहे हैं. यह भी दलितों में शिक्षा के चलते संभव हो पाया है.”
रजत के मुताबिक दलितों का एक बड़ा तबका अब यह मान रहा है कि उनकी ख़राब स्थिति की वजह उनकी नियति नहीं है, इसलिए हर जगह से पुराने रीति-रिवाजों को खारिज करने की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसके अलावा दलित समुदाय का पलायन गांवों से शहरों की ओर भी बढ़ रहा है. रजत कहते हैं, “जब ये लोग अपने गांवों में लौटते हैं तो उनके पास कुछ नए विचार होते हैं, नई सोच होती है. इनसे उन्हें भेदभाव को बढ़ावा देने परंपराओं को खारिज करने की प्रेरणा मिलती है.”
दलित युवाओं की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं का जिक्र करते हुए डिक्की के अध्यक्ष मिलिंद कांबले बताते हैं कि देश भर में आर्थिक विकास का फायदा दलितों को भी हुआ है. कांबले बताते हैं, “दलित युवाओं की आकांक्षाएं बढ़ी हैं, वे सम्मान के साथ जीना चाहते हैं और आर्थिक विकास में बराबर की हिस्सेदारी चाहते हैं.” कांबले के मुताबिक दलितों की कामयाबी से भी उच्च जाति के लोगों में असुरक्षा का भाव बढ़ा है और इस वजह से भी दलितों पर अत्याचार के मामले बढ़े हैं।
मिलिंद कांबले यह भी बताते हैं कि इन सबके बावजूद कारोबारी दुनिया में दलितों की उपस्थिति बेहद कम है.
मार्टिन मैकवान ने हाल ही में दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों की भारतीय मीडिया में छपी रिपोर्टों पर एक पुस्तक संपादित की है. इनमें ढेरों मामलों को शामिल किया गया है लेकिन मैकवान खास तौर पर राजस्थान के 36 साल के बाबूराम चौहान का जिक्र करते हैं। बाबूराम एक दलित आरटीआई एक्टिविस्ट हैं. उन्होंने आरटीआई के जरिए दलितों की उस जमीन पर फिर से दावा जताया था जिसे सवर्णों ने हथिया लिया था. मैकवान कहते हैं, “दलित समुदाय में जमीन को लेकर जागरूकता से उच्च जाति के लोग परेशान हुए और बाबू राम पर हमला किया गया.”
मैकवान यह भी बताते हैं कि पुरानी पीढ़ी के दलित शिक्षा हासिल करने के बाद भी शोषित रहे थे लेकिन नई पीढ़ी के दलित कहीं ज्यादा मुखर, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और अंबेडकर के समाजवादी सिद्धांतों से प्रेरित हैं.
मैकवान कहते हैं, “आंबेडकर के समाजवाद और समानता का विचार कई दलित युवाओं के जीवन में अहम तत्व है.” मैकवान नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन के 2018 में प्रकाशित साक्षरता दर के अध्ययन का हवाला देते हुए कहते हैं गुजारात में दलितों पर अत्याचार के मामले भी ज्यादा होते हैं, जबकि राज्य में दलितों में शिक्षा की दर भी ज्यादा है. उन्होंने बताया, “शिक्षा ज्यादा होने से ही भेदभाव करने वाली परंपराओं को अपनाने में अनिच्छा और उसका ज्यादा विरोध देखने को मिलता है.”
भीमराव आंबेडकर का एक मशहूर कथन है- सामाजिक अत्याचार की तुलना में राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं है और समाज को चुनौती देने वाला व्यक्ति सरकार को चुनौती देने वाले नेता से कहीं ज्यादा साहसिक आदमी होता है. ऐसे में कहा जा सकता है कि भेदभाव वाली परंपराओं को चुनौती देने वाली छोटी छोटी घटनाएं ही आने वाले दिनों बड़े बदलाव का आधार बनेंगी.