राजगढ़ मध्यप्रदेश। कबीर मिशन समाचार
भिकनपुर। गांव में बुधवार को राजपूतों ने एक दलित के बेटे की बारात के जुलूस को अपने मुहल्ले से निकालने से रोक दिया। घटना बुधवार रात 09:00 बजे की है रात में दलित गोपीलाल मालवीय के बेटे सतीश मालवीय की बारात गांव भिकनपुर में नाचते गाते बाराती और घोड़ी पर सवार दूल्हा डीजे के साथ राजपूत आबादी वाले मोहल्ले से गुजरे राम मन्दिर के पास पहुंचे थे।
तभी गांव का ही मनोहर सिंह राजपूत पिता प्रताप सिंह राजपूत आया और जुलूस को रोकर गाली गलौज करने लगा। मां बहन की गाली देखकर बोला कि तुम्हारी डेढ़ जात का जुलूस यहां से नहीं निकलेगा और दूल्हे से कहा कि तू घोड़ी से नीचे उतर नहीं तो लट्ट की मारूंगा और नीचे पटक दूंगा। घोड़ी पर बैठने का अधिकार हम राजपूतों का और तुम नीची जाति के लोग हमारे सामने घोड़ी पे बैठकर हमारे घर के सामने से जुलूस निकालोगे।
आज से किसी भी नीची जाति वाले का ना ही घोड़ी से ना ही डीजे से बारात या जुलूस निकालेगा। दूल्हे सतीश ने बताया कि इतना कहने के बाद में घोड़ी से नीचे उतर गया और डीजे को वापस अपने घर की तरफ भेज दिया। मेरे बड़े पापा माधोसिंह, मनोहर पर्रिकर राजपूत को समझाने के लिए गए तो उनको लाठी लेकर मारने दौड़ा। हम बिना जुलूस निकाले ही बारात लेकर चल दिए, जब शादी होने के बाद हम वापस अपने घर आ रहे थे तो हमे प्रतिक्षालय के पास रोड पर शैलेंद्र पिता रूपसिंह राजपूत, व भंजी उर्फ देशराज पिता शिवराज सिंह राजपूत ने मुझे और मेरी बहन और दुल्हन पूजा दोनों की मोटरसाइकिल को रोक कर मेरे साथ झूम झटकी करने लगे जिससे में व पूजा दोनों नीचे गिर गए। उसने जाति सूचक गाली दी मुझे अपमानित किया जिससे मुझे वह मेरे परिवार के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई है।
मेरा बीच बचाव मेरी बड़ी बहन ज्योति और मेरे मौसा जी कैलाश ने किया। फिर भी तीनों बोल रहे थे कि यदि तूने पुलिस को सूचना की तो पूरे परिवार सहित गांव से बाहर कर देंगे और गांव में नहीं रहने देंगे।
आये दिन ऐसी घटनाएं सामने आती रहती है शादियों के मौसम में लगभग हर हफ्ते देश के किसी न किसी हिस्से से ऐसी किसी घटना की खबर आ ही जाती है। इन घटनाओं में जो एक बात हर जगह समान होती है, वह यह कि दूल्हा दलित होता है, वह घोड़ी पर सवार होता है और हमलावर सवर्ण समुदाय के लोग होते हैं।
इन घटनाओं के समाजशास्त्रीय दृष्टि से दो मतलब हैं।
एक, दलित समुदाय के लोग पहले घुड़चढ़ी की रस्म नहीं करते थे। न सिर्फ सवर्ण बल्कि दलित भी मानते थे कि घुड़चढ़ी सवर्णों की रस्म है लेकिन अब दलित इस भेद को नहीं मान रहे हैं। इसे लोकतंत्र का भी असर कहा जा सकता है। जिसने दलितों में भी समानता का भाव और आत्मसम्मान पैदा कर दिया है। यह प्रक्रिया पहले पिछड़ी जातियों में हुई होगी, जो अब चलकर दलितों तक पहुंची है।
दूसरा, सवर्ण यानी ऊपर मानी गई जातियां इसे सहजता से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं। उनके हिसाब से दूल्हे का घोड़ी पर सवार होना एक सवर्ण विशेषाधिकार है और इसे कोई और नहीं ले सकता।
वे इस बदलाव को रोकने की तमाम कोशिशें कर रहे हैं। हिंसा उनमें से एक तरीका है और इसके लिए वे गिरफ्तार होने और जेल जाने तक के लिए तैयार हैं। आधुनिकता और लोकतंत्र के बावजूद सवर्णों में यह चेतना नहीं आ रही है कि सभी नागरिक समान हैं।
कई दशक पहले पिछड़ी जातियों के लोगों ने जब बिहार में जनेऊ पहनने का अभियान चलाया था, तो ऐसी ही हिंसक प्रतिक्रिया हुई थी और कई लोग मारे गए थे। दलितों के मंदिर घुसने की कोशिश अब भी कई जगहों पर हिंसक प्रतिक्रिया को जन्म देती है।
ऐसी घटनाओं की तादाद बहुत ज्यादा है जो कहीं दर्ज नहीं होतीं, राष्ट्रीय स्तर पर जिनकी चर्चा नहीं होती। एक घुड़चढ़ी पर हमला दरअसल सैकड़ों दलित दूल्हों को घुड़चढ़ी से रोकता है, यानी सामाजिक बराबरी की तरफ़ कदम बढाने से रोकता है।
खासकर गांवों में समाज अभी भी स्थिर हैं और दलित कई जगहों पर आर्थिक रूप से सवर्णों पर निर्भर हैं इसलिए वे खुद भी ऐसा कुछ करने से बचते हैं, जिससे सवर्ण नाराज हों और उनके आर्थिक स्रोत बंद कर दिए जाएं।
इन घटनाओं को अब तक दलित उत्पीड़न के तौर पर देखा गया है। अब जरूरत इस बात की भी है कि इन घटनाओं को ‘सवर्णों की समस्या’ की तरह देखा जाए। कोई बीमार समाज ही किसी युवक के घोड़ी पर चढ़ने पर पत्थर फेंक सकता है।
दुनिया में किसी भी देश में इसे सामान्य नहीं माना जाएगा। 21वीं सदी में तो इसे किसी भी हालत में आम घटना के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। इस बीमार मानसिकता का मनोचिकित्सकों और समाजविज्ञानियों को अध्ययन करना चाहिए।
आधुनिकता के साथ पिछड़ापन
यह समझने की कोशिश की जाए कि आधुनिकता और लोकतंत्र के इतने सालों के अनुभव के बाद भी कुछ समुदाय सभ्य क्यों नहीं बन पाए रहे हैं। ऐसी कौन सी चीज है, जिसकी वजह से सवर्ण यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वे भी बाकी लोगों की तरह इंसान हैं और उन्हें कोई जन्मगत विशेषाधिकार हासिल नहीं हैं और न ही कुछ लोग सिर्फ जन्म की वजह से नीच हैं।
अगर पुराने दौर में उन्हें कुछ विशेषाधिकार हासिल थे भी तो लोकतंत्र में उन्हें यह सुविधा हासिल नहीं है। इसे भारतीय आधुनिकता की समस्या के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। यूरोप और अमरीका में परंपरा और पुरातन की कब्र पर आधुनिकता का विकास हुआ। जो कुछ सामंती या पतनशील था, उसे खारिज करने की कोशिश की गई। चर्च और पादरियों को पीछे हटना पड़ा, तब जाकर बर्बर यूरोप बदला और वहां वैज्ञानिक और औद्योगिक क्रांति हुई।
भारत में ऐसी कोई क्रांति नहीं हुई।
यूरोप से सीखी हुई आधुनिकता और भारतीय परंपरा के नाम पर जारी अन्याय से भारत में जीवन जीने का ढंग नहीं बदला, यही वजह है कि उपग्रह प्रक्षेपण की सफलता के लिए मंदिर में पूजा को सामान्य माना जाता है। यहां इंटरनेट जैसे आधुनिक प्लेटफॉर्म पर जाति और कम्युनिटी के मेट्रोमोनी डॉट कॉम चलते हैं।
जातिवाद एक व्यापक समस्या का ही हिस्सा है जहाँ वैज्ञानिक अध्ययन और लोकतांत्रिक सोच से टकराव हर स्तर पर दिखाई देता है, मसलन, क्या ये धार्मिक मामला है कि दिल्ली में अरबिंदो मार्ग पर आईआईटी के गेट पर शनि मंदिर बनाया गया है जहां टीचर और स्टूडेंट सरसों का तेल चढ़ाते हैं?
भारतीय समाज कई मामलों में एक भैंसागाड़ी की तरह है जिसमें इंजन लगा दिया गया हो।
भारत ने लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन प्रणाली को तो अपना लिया गया, लेकिन समाज में गोलबंदी का आधार धर्म और जाति बने रहे। संविधान सभा में बाबा साहेब आंबेडकर ने इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में स्वीकार किया था।
उन्होंने कहा था कि हर व्यक्ति का एक वोट और हर वोट का एक मूल्य तो है लेकिन हर व्यक्ति समान नहीं है। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि यह स्थिति बदलेगी।
दलितों की घुड़चढ़ी पर पत्थर फेंकने वाले सवर्णों ने भारत के संविधान निर्माताओं को निराश किया है।