आज इस लेख में मेरी एक घटनामय स्थिति की ओर रुख करते हुए, मैं वर्तमान युग की मीडिया में फैली धार्मिक कट्टरता के बारे मेें बताना चाहता हूं। मेरा नाम सतीश भारतीय हैं। मैं एक लेखक और पत्रकार हूं। मेरा ताल्लुक़ सागर मध्यप्रदेश से है। मैं दिल्ली (इंदिरापुरम) में 21 दिसंबर 2021 के दिन लगभग शाम 4 बजे के समय एक फेमस समाचार समूह में पत्रकार (रिपोर्टर) के तौर पर जॉब के लिए अपना पहला साक्षात्कार देने गया। अंदर जाते ही देखा कि मीडिया समूह के उस ऑफिस कि चमक-दमक काफी दुरुस्त दिख रही थी। जब मैंने साक्षात्कार के लिए समाचार समूह के समूह एडिटर के कक्ष की ओर रुझान किया तब वहां मेरे आने के पहले से ही एक मोहतरमा का इंटरव्यू चल रहा था। हालांकि तब भी संपादक साहब ने मुझे अंदर बुला लिया। और बैठने को भी कहा। उन मोहतरमा के इंटरव्यू में मैंने जो संपादक साहब की मुंह जुबानी सुनी, तब प्रतीति हुयी कि यह संपादक जी मोहतरमा को एक अलग ही पत्रकार बना देंगे। और पत्रकार बनाने के लिए संपादक उन मोहतरमा को 3 वर्ष की ट्रेनिंग देंगे। मेम साहब के हाव-भाव से लगा कि वह भी इस मीडिया ट्रेनिंग के लिए हर्षोल्लासित थी। रफ्ता-रफ्ता उनके साक्षात्कार का समापन हुआ। फिर खुशी-खुशी वह दफ्तर से बाहर निकल गयी।
अब इसके बाद मेरे साक्षात्कार की बारी आ गई। जब मेरा साक्षात्कार प्रारंभ हुआ तो मैंने पत्रकारिता को ध्यान में रखते हुए। संपादक जी द्वारा पूछे गए प्रश्नों के जवाब हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का मिश्रण करते हुए दिए। मेरे जवाबों से मुझे संतुष्टि महसूस हुई। लेकिन साक्षात्कार के दौरान ही संपादक महोदय ने मुझसे स्पष्ट तौर पर कहा कि “आप मुसलमानों की भाषा उर्दू का प्रयोग क्यों कर रहे हैं क्या आप मुसलमान हैं” तो फिर मैंने उन्हें उत्तर दिया कि क्या सिर्फ उर्दू मुस्लिम बाहुल्य की भाषा है। और पूछा कि क्या कहीं आपने ऐसा पढ़ा है। आगे मैंने कहा कि आपने पढ़ा हो या ना पढ़ा हो मगर मैंने पढ़ा है कि हिंदी-उर्दू का संबंध बहनों के भांति है। उर्दू महज मुस्लिमों की नहीं अपितु भारतवर्ष और विश्व की भाषा है, पत्रकारिता जगत की भाषा है। अब क्या कहें चलिए छोड़िए, संपादक महोदय ने तो चुप्पी ही साध ली। मगर उसके बाद जो संपादक महोदय ने मुझसे कहा उसे सुनकर तो मैं हैरतअंगेज हो गया। क्योंकि कोई भी यथार्थवादी और कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार संपादक जी के शब्द सुनकर ऐसा ही महसूस करता। संपादक महोदय ने स्पष्ट रूप से खड़े शब्दों में कहा कि
“मैं इस्लाम विरोधी हूं और मुस्लिमों ने मेरे देश को बर्बाद किया है” चूंकि संपादक अल्पसंख्यकों के समूह में जैन धर्म के हैं। लेकिन उन्होंने यह कह कर कहीं न कहीं इस साक्षात्कार को हिंदू-मुस्लिम कट्टरता और धार्मिकता की ओर मोड़ दिया। इसके बाद मैंने उनसे कहा कि “आप मुस्लिम इस्लाम विरोधी क्यों हैं और मुस्लिमों ने हमारे देश को कैसे बर्बाद किया” इसकी व्याख्या करें। तब फिर से उन्होंने मेरे पिछले प्रश्न की मुआफ़िक़ चुप्पी साध ली। फिर कुछ सवाल-जवाब के बाद संपादक जी ने मुझसे कहा कि यदि आप मेरी आईडियोलॉजी के साथ मेरे समाचार समूह में कार्य करना चाहे तब अच्छा है, अन्यथा आप जा सकते हैं। इतना सुनकर मैंने कहा कि मेरे पत्रकारिता जगत के इस पहले साक्षात्कार में मुझे आपके मीडिया समूह में आकर ऐसा मालूम हुआ कि मैं किसी धार्मिक कट्टरता फैलाने वाली संस्था में आ गया हूं। आगे मैंने कहा कि मैं मानवतावादी हूं और मेरा मानवता के अलावा कोई धर्म नहीं। मैं आपके और आपके मीडिया समूह के साथ कार्य नहीं कर सकता…धन्यवाद। और वहां से निकलकर वापस अपने ठिकाने की ओर चल पड़ा। इस साक्षात्कार के दौरान जो संपादक साहब के भीतर ही नहीं वरन् बाहर भी मानवता विरोधी शब्द और विचारधारा नजर आई। उससे आपको क्या लगता है? जिस प्रकार संविधान में धर्मनिरपेक्षता का जिक्र किया गया। उसे देखते हुए संपादक साहब का मुस्लिम धर्म और बाहुल्य पर निकृष्ट टिप्पणी करना किद हद तक उचित है? क्या देश में धार्मिक पत्रकारिता भी हो सकती है? क्या धार्मिक कट्टरता पैदा करने वाले ऐसे लोगों को पत्रकार कहा जा सकता है?
क्या आजादी की मिशन पत्रकारिता रफ्ता-रफ्ता इतनी तब्दील हो गई कि उसमें विशेष धर्म को महत्वता देने वाले लोग घुस गए जो चिल्ला-चिल्लाकर खुद को पत्रकार भी कह रहे हैं। क्या आज के दौर में मीडिया समूहों की जो स्थापना हो रही है वह किसी विशेष धर्म का प्रचार करने के लिए हो रही है? आज जो धार्मिक कट्टरता का भयाभय रूप हमें दिख रहा है उसे बढ़ावा देन में क्या मीडिया का अहम रोल है? ऐसी मीडिया को मीडिया कहा जाना किस हद तक मुनासिब है। आप इन सभी प्रश्नों पर स्वयं हृदय की गहराइयों से विचार करें। आप को बता दूं कि मैं उस लोकप्रिय मीडिया समूह और उसके समूह संपादक का नाम इसलिए नहीं बताना चाहता हूं कि मेरे इस साक्षात्कार में मेरे और संपादक साहब के बीच जो बातचीत हुई उसकी गवाही मेरी आंखें और कान हैं। इसके अलावा मेरे पास प्रमाणिक तौर पर और कोई पुख़्ता सबूत उपलब्ध नहीं है। लेकिन मेरे साथ किया गया यह बर्ताव धरती बखूबी जानती है।
सतीश भारतीय