अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)
जेल या कारागार एक ऐसी व्यवस्था है, जिसे अपराधियों को सबक सिखाने के लिए बनाया गया था। इसके पीछे का प्रयोजन यह था कि इससे अपराधियों को समाज से दूर रखकर उन्हें उनके अपराध का दंड दिया जाए, जिससे उन्हें सुधारा जा सके और समाज में फिर से एक बेहतर नागरिक के रूप में पहुंचाया जा सके। जेल में कैदियों को रखने का यही मकसद होता है कि वे फिर वह अपराध न करें।
लेकिन कई बार ऐसी ख़बरें सुनने-पढने को मिल जाती हैं, जिन्हें जानने के बाद लगता है कि इन जेलों का होना बेमतलब ही है…आपने भी कई बार इस तरह कि खबर सुनी होगी कि किसी गैंगस्टर ने जेल में कैद होने के बावजूद किसी बड़ी अपराधिक घटना को अंजाम दे दिया। तब यही सवाल मन में आता होगा कि जब वो अपराधी सालों से जेल में कैद है।
, तो फिर इतनी बड़ी घटना को अंजाम आखिर कैसे दे दिया होगा। और अगर यह इतना ही आसान है तो इतनी बड़ी-बड़ी जेलें होने का मतलब ही क्या हैं…?इस तरह की घटनाएँ जेल व्यवस्था की भेद्यता को दर्शाती है।
जिससे साफ पता चलता है कि इस व्यवस्था को बनाए रखने के जिम्मेदार लोग ही इसे कमजोर कर रहे हैं। बिना इसके यह संभव नहीं कि एक कैदी जो सालों से जेल में बंद है, वो जेल के अंदर से ही किसी बड़ी घटना को अंजाम दे सके।
इस तरह की घटनाओं में यह भी सामने आया है कि इन घटनाओं को अंजाम देने के लिए अपराधियों के पास मोबाईल फ़ोन, लेपटॉप और इंटरनेट जैसी सुविधाएँ भी होती है, जिससे वे बाहर के साथियों से संपर्क करते हैं। जेल विभाग की सांठगांठ के बिना यह संभव नहीं है।
जेल प्रशासन भले ही सख्ती की बात करे लेकिन इस सख्ती का भी इन अपराधियों पर कोई असर नहीं है। क्योंकि इससे बचने के उपाय देने वाले भी जेल में ही मौजूद हैं। उदाहरण के लिए सुरक्षा बनाए रखने के लिए समय-समय पर अपराधियों के सेल और बैरकों की तलाशी ली जाती है।
तलाशी के समय ये अपराधी जेल में अपने सहयोगियों को अपने फ़ोन या अन्य प्रतिबंधित सामान सौंप देते हैं। या इनके सहयोगी इनके फ़ोन, लेपटॉप अपने पास रखते हैं और अपराधी इनका उपयोग कर अपने सहयोगियों को लौटा देते हैं। इस तरह ये कभी पकड़ में ही नहीं आते हैं। इन डिवाइसों को पकड़ने के लिए कई जेलों में जैमर और कैमरे भी लगाए गये हैं,
लेकिन जेल के किस हिस्से में जैमर और कैमरे की पहुँच नहीं है, इसकी जानकारी भी इनके सहयोगियों द्वारा मिल जाती है। इस तरह ये अपराधी बेखौफ अपराधों को अंजाम देते हैं। सरकार के नियम-कानून भी इन अपराधों को रोकने के लिए काफी नहीं हैं।
जैसे कैदियों तक प्रतिबंधित सामान की पहुँच रोकने के लिए प्रिज़नर्स एक्ट में संशोधन कर जेल में बंदियों के पास मोबाइल मिलने पर पांच साल तक की सजा, इंटरनेट डिवाइस मिलने पर सजा के साथ 50 हजार रुपये जुर्माना और अन्य प्रतिबंधित सामान रखने पर तीन साल की सजा और 25 हजार रुपये जुर्माना का प्रावधान रखा गया है।
लेकिन जो अपराधी पहले से ही संगीन अपराधों के लिए लम्बी सज़ा काट रहे हैं और जिनके लिए जेल में ही सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। उनके लिए दो-तीन साल की अतिरिक्त सज़ा काटना कोई बड़ी बात नहीं है।
इस तरह नियम-कानून और टेक्नोलॉजी से भी इन अपराधियों को रोक पाना संभव नहीं दिखाई देता, तो फिर सवाल यह उठता है कि जब अपराधी जेल के अंदर से भी अपराधों को अंजाम दे ही रहे हैं तो जेलों के होने का मतलब ही क्या है…? जिस उद्देश्य के साथ जेल व्यवस्था की शुरुआत की गई थी। जब वह सार्थक ही नहीं हो पा रही है
, तो ये सब व्यर्थ ही है। जब व्यवस्था में शामिल लोग ही नियमों को ताक पर रख रहे हैं तो किस प्रकार जेलों को सुधारगृह बनाया जा सकता है। अगर सच में न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाना है और जेलों के उद्देश्य को