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पत्रकारिता का शर्मकाल 2014 के बाद नही, 1930 के बाद से ही शुरू हो गया था

पत्रकारिता का शर्मकाल 2014 के बाद नही शुरू हुआ. लिबरल पत्रकार झूठ बोल रहे हैं. पत्रकारिता का शर्मकाल 1930 के बाद शुरू हुआ जब डॉ बाबा साहेब अंबेडकर राजनीति और सामाजिक न्याय के मंच पर जोरदार दस्तक दी थी. ब्रिटिश काल के सवर्ण मीडिया ने डॉ आंबेडकर का पूरी तरह बॉयकॉट कर रखा था.

1978 में बाबू जगजीवन राम जी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए मनुवादी मीडिया भारत के इतिहास का पहले स्टिंग ऑपरेशन उनके बेटे के निजी जीवन पर किया. एक महिला से सेक्स करते हुए बेटे की तस्वीरों ने बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया.

1990 में 27% OBC आरक्षण लागू होते ही मनुवादी मीडिया ने शर्म की सारी हदें पार कर दी. सवर्ण पत्रकारों ने अखबारों के द्वारा देश में आग लगाने का काम किया. मंडल कमीशन की निंदा और कमंडल की वाह वाही कर पत्रकारिता को निचले स्तर गिरा दिया.

1995 के बाद जब नेताजी मुलायम सिंह यादव, बहन मायावती और आदरणीय लालू प्रसाद यादव देश में सबसे प्रभावशाली नेता की अग्रणी पंक्ति में आकर खड़े हुए उसके बाद मनुवादी मीडिया ने हमारे नेताओं का चरित्र हनन करना शुरू किया. मनुवादी मीडिया ने कभी सवर्ण नेताओं का चरित्र हनन नही किया. उनका महिमामंडन कर उन्हें राजनीति के शिखर पर स्थापित करने का काम किया है.

साभार- क्रांति कुमार के ट्विटर से

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