मध्यप्रदेश लेख

समाजिक प्रथाओं के बीच प्रभावित होता संवैधानिक मूल्य ‘बंधुता’ – सतीश भारतीय

कबीर मिशन सामाचार/राजगढ,

भारतीय संविधान देश‌ के संचालन और नियमावली का मुख्य दस्तावेज है। इस संविधान नामक दस्तावेज का मूल‌ प्रस्तावना है। प्रस्तावना का मुख्य आधार विभिन्न संवैधानिक मूल है। जिनमें एक विशेष संवैधानिक मूल्य ‘बंधुता’ भी है। बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्य को संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर सबसे आधाभूत समाजिक-राजनीतिक मूल्य मानते थे। ‘बंधुता’ को आमतौर पर हम ‘भाईचारे’ के रूप में भी प्रयोग करते हैं। वहीं, बंधुता जैसा शब्द और संवैधानिक मूल्य किसी भी देश की मान-मर्यादा, गरिमा, एकता अन्य का एक मजबूत अधार है। साथ-साथ इंसानी सद्भावना, अहसास और एकजुटता का भी स्तंभ है। लेकिन, विचारणीय है कि, संविधान की प्रस्तावना में दर्ज ‘बंधुता’ जैसे संवैधानिक मूल्य को हम आज़ादी के सात दशक बाद भी कितना‌ स्वीकार कर पाए? उतना नहीं कि ग्रामीण क्षेत्रों में नीची जाति वाला इंसान ऊची जाति वाले इंसान के साथ बैठकर खाना खा सके, ऊच-नीच की भावना बिना एक हो‌ सके।

आज एक वह वर्ग है जो‌ चांद पर पहुँच चुका है, वहीं दूसरा वह वर्ग है जो‌ गैर जरूरी सामाजिक परंपराओं‌ और कुप्रथाओं में लिपटा है। जिससे लोगों के बंधुता जैसे अन्य संवैधानिक मूल्य प्रभावित होते हैं। जब खासतौर पर ग्रामीण भारत की धरातल देखते हैं। तब हमें ज्ञात होता है कि, लोगों के बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्य का कितना हनन होता है। इसका एक उदाहरण मैं अपने गांव को लेकर देना चाहता हूँ। मेरा गांव (गांव‌ का नाम गुमनाम रखना‌ चाहता हूँ) सागर जिले में स्थित है‌। ग्रामीण अंचलों की तरह मेरा गांव भी पुरानी परंम्पराओं‌ में लिपटा हुआ है। भारत के विभिन्न गांवों की तरह यहाँ भी पर्दा प्रथा, जातिवाद, ऊंच-नीच जैसे अन्य सामाजिक ताने-बाने लोगों दिलोदिमाग में विराजमान है। जिससे बंधुता जैसे अन्य संवैधानिक मूल्यों पर खतरा बना रहता है। गांव में दलित समुदाय की आबादी भी काफी ज्यादा है। दलित समुदाय में भी ब्राम्हण जैसे अन्य समुदाय की भांति इंसान की मृत्यु के बाद तेरहवीं भोज प्रथा का चलन‌‌ है। इस तेरहवीं प्रथा का एक सकारात्मक पहलु यह है कि एक वक्त का भोजन समाज को मुफ्त मिल‌ जाता है।

लेकिन दूसरी तरफ तेरहवीं प्रथा कई लोगों को कर्ज में डुबो देती है, तो कहीं-कहीं‌ लोगों के घरों के छप्पर बिकाऊ कर देती है। लेकिन, अब वह वक्त भी आ गया जहां हमारे पास के चांदपुर जैसे कुछ गांव ने तेरहवीं भोज (प्रथा) बंद कर दी है। जिससे सामाजिक उत्थान की ओर एक नयी पहल दिख रही है। हमारे गांव में हमारा परिवार एक शिक्षित परिवार है। ऐसे में सामाजिक उत्थान को ध्यान में रखते हुए, हम भी तेरहवीं प्रथा बंद करने की सोच रखते हैं। हालांकि, हमारा दलित समाज इतने जल्द तैयार‌ नहीं हो सकता। क्योंकि समाज उन्हीं कुप्रथाओं में अंदर जा रहा है, जिनसे हमें उभरना है। इसका उदाहरण यह है कि, हमारे गांव में दलित समुदाय ने, किसी शख़्स की मृत्यु होने पर सिर मुंडन प्रथा को जोर-शोर से बढ़ाबा दिया है। पहले के मुकाबले अब किसी की मृत्यु होने पर, जिन परिवारों से पिता का साया उठ गया, उनमें महिलाओं को छोड़कर‌ सभी को‌ सिर मुंडन करवाना पड़ता है। ऐसे में जब हम जैसे शिक्षित परिवार ने तेरहवीं और मुंडन प्रक्रिया को‌ रोकने का प्रयास किया, तब दलित समाज ने हमें समाजिक बंधुता और‌ जुड़ाव, खान-पान, साथ बैठने उठने, सार्वजनिक कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए बंद कर दिया। हमने समाज से गुहार लगायी कि हमें अपनी पीढ़ी के विकास हेतु कुप्रथाओं से निकलकर समाजिक उत्थान की तरफ बढ़ना चाहिए। लेकिन, समाज तब भी नहीं माना। ऐसे में, निश्चित तौर पर समाज और‌ हमारे बीच ‘बंधुता’ या भाईचारे की भावनाएं प्रभावित हुयीं है। जिससे समाज के साथ-साथ चलने में रुकावट बरकरार है।

मगर, ध्यातव्य है कि आज की युवा पीढ़ी पुरानी रुढ़ियों और कुप्रथाएं मानने के लिए तैयार नहीं है। पर युवा पीढ़ी को समाजिक गठजोड़ की वजह से मजबूरन समाज के गैर जरूरी नियम-कायदे मानने को मजबूर है। हमारे गाँव सहित कई गांव में युवा पीढ़ी सामाजिक, वैवाहिक अन्य समारोहों में अपने मित्र, दोस्तों के लिए आमंत्रित करती है। लेकिन, समाज दोस्तों की दोस्ती और बंधुता में अडंगा बना रहता है। जिससे दोस्तों के बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्य का सरासर हनन होता है। साथ-साथ संविधान की उस भावना पर संकट दिखता जो हमें एकतत्व रूप में बांधना चाहती है। गांव में युवा पीढ़ी अपने मित्रों को कार्यक्रमों के आमंत्रण भेजती रहती है। लेकिन, कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पाती है। युवाओं की बंधुता सिर्फ आमंत्रण पत्रों में लिपट कर रह जाती है।

अगर, कोई सामाजिक गैर जरूरी नियम, कायदों को कोई तोड़ने का साहस करता है। तब समाज उसका हुक्का पानी बंद‌ कर देता है। विचारणीय है कि, सदियों से कुप्रथाओं का दंश झेलते समाज को‌ बंधुता या भाईचारे में बांधने का प्रयास भारतीय संविधान ने किया है। लेकिन, हम समाज के बीच ‘बंधुता’ जैसे संवैधानिक मूल्यों को कब उतार पायेगें। ताकि बंधुत्व को और मजबूत किया जा सके, और हम गर्व से वसुधैव कुटुंबकम की भावनाएं फलीभूत कर सकें।

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