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सिमटते क्षेत्रीय दल सिमटता लोकतन्त्र, छोटे छोटे दल गुट अब बड़े गुटों में शामिल क्या है कारण ?

कबीर मिशन समाचार।

90 का दशक, कांग्रेस के बिखराव का दौर रहा है। आखरी कांग्रेस सरकार 1985 में बनी। फिर गठबन्धन सरकारों का युग है आया। नरसिंहराव सरकार, अनेक छोटे दलों की मदद से चली। 1995 में इसे प्रमुख चुनौती जनता दल के टुकड़े दे रहे थे। नीतीश समता पार्टी बनाकर, लालू राजद, देवगौड़ा JDS, बीजू BJD, मुलायम सपा बनाकर, तो देवीलाल इनेलो बनाकर ताल ठोक रहे थे तो वही मालवा मध्य प्रदेश में कही दल देश की राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस बीजेपी को चुनौती दे रहे थे मालवा की आष्टा विधानसभा सीट पर बीएसपी चुनौती दे रही थी.

वही आष्टा के बीएसपी नेता फूलसिंह चौहान ने 2006 में नई पार्टी प्रजातांत्रिक समाधान पार्टी बनाई जिसके बाद इस चेत्रीय पार्टी का जन समर्थन बड़ता गया वही ग्वालियर इलाके में फूलसिंह बार्र्या ने बहुजन संघर्ष दल की बनाया और 2018 का चुनाव दोनो पार्टियों ने लड़ा मगर दोनो को सफलता हाथ नहीं लगी जिसके बाद दोनो पार्टियों ने कांग्रेस पार्टी में अपना विलय कर दिया जिसके बाद फूलसिंह बारय्या कांग्रेस पार्टी से राज्यसभा का चुनाव लडे मगर सफलता हाथ नहीं लगी और फूलसिंह चौहान के निधन के बाद उनके छोटे भाई कमल सिंह चौहान ने पार्टी की कमान संभाली फिर भी सफलता हाथ नहीं लगी अब कांग्रेस पार्टी से विधायक की टिकिट की मांग कर रहे हैं. इन सबने कांग्रेस के ही समर्थक वर्ग को अपनी ओर खींचा।आगे चलकर कांग्रेस के क्षत्रपों ने पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र की यूनिट्स पर पर कब्जा कर लिया। वहां से बाहर कर दिया। शिवसेना, नेशनल कांफ्रेंस, अकाली, DMK, कम्युनिस्ट तो पहले से मौजूद क्षेत्रीय ताकते थी।

भारत का संवीधान, संघीय ढांचे की बात तो करता है, मगर उसका स्वभाव मजबूत केंद्र की ओर झुका है।
केंद्र सूची के विषय उसके है ही। समवर्ती सूची में भी वह राज्य विधानसभाओ को सुपरसीड कर सकता है।
रहे राज्य सूची के विषय, तो वहां गवर्नर के माध्यम से अड़ंगे लगाकर, उसकी ताकत शून्य कर देने की शक्ति भी है। मोदी सरकार ने इसका नग्न इस्तेमाल किया है।

अनुच्छेद 356 भी केंद्र का हथियार था। पर बोम्मई जजमेंट के बाद यह भोथरा हुआ, तो नए नए तरीके ईजाद हुए। विधायक खरीदकर, एजेंसियों से डराकर, नापसंद सरकारे गिराने के खेल हम देख रहे हैं। आखरी ब्लो, GST ने दिया। इसके बाद राज्यो की वित्तीय स्वतन्त्रता छिन गयी। दरअसल हम रियलाइज नही करते, कि हमारी जिंदगी के 80% मसले हल करने वाली, राज्य सरकार की हैसियत, अब किसी नगरपालिका से अधिक नही बची।

मजबूत सरकार हमेशा एक करप्ट और दुष्ट सरकार होती है। देश भर में फैला, एकक्षत्र राज करने वाला दल, असल मे अभिशाप है। नेहरू काल को छोड़ दें, तो मजबूत केंद्र ने हमेशा नागरिक अधिकारों से खिलवाड़ किया। संसाधनों का असंतुलित वितरण किया। घटिया सीएम, सांसद दिये। हेकडीबाज, दुर्दांत व्यवहार किया।
लेकिन 1990 से 2014, मजबूर केंद्र और मजबूत राज्य सरकारों का रहा। और ये सहकार का, समझदारी, एकोमोडेशन का दौर था। सुनने, मानने, कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाने और हर क्षेत्रीय आवाज को तवज्जो दिए जाने का दौर था। तब मणिपुर, तमिलनाडु या कश्मीर की आवाज अनसुनी करना सम्भव न था। हर स्टेट की पार्टी अपनी मांग रखती, हासिल करती।

असल पैकेज होते, रियल रिसोर्स, रियल मनी होता। ये चुनावी बकलोलियाँ नही होती थी।
ये यशवंत- मनमोहन के 20 साल थे। याने शानदार वित्त प्रबंधन जानने वाले, कमाऊ पूतों का दौर था।
ये सही खर्च नीति वाले अटल-सोनिया का दौर था। उसके बराबर क्षेत्रीय वितरण का दौर था। ये 4 मेट्रो शहर से आगे, लखनऊ, जयपुर, पूना, हैदराबाद, इंदौर, बैंगलोर, नोएडा, त्रिवेंद्रम में समृद्धि समाने का दौर था।
अतुलित कमाई और बेतहाशा खर्च वाले ये 20 वर्ष समृद्धि के रहे। लोकतन्त्र के रहे। आंखों की शर्म के रहे।
जब गृहमंत्री की कुर्सी, अनावश्यक कपड़े बदलने से चली जाती । जहां आरोप लगते ही इस्तीफा होता, जेल भी। सरकार शर्मिदा और रक्षात्मक होती।

फिर भी ऑपरेशन विजय होता, ऑपरेशन पराक्रम होता। चीन को गलवान से लौटाया जाता, अप्रचारित सर्जिकल स्ट्राइकें होती। पाकिस्तान को वैश्विक स्तर पर अलग थलग कर दिया जाता। इंदिरा और मोदी जैसी एकनिष्ठ सत्ता, गर्व दिला सकती है, युद्ध लड़ा सकती है, सबक सिखा सकती है, पेट नही पाल सकती।

वो नागरिक की, सम्विधान की गरिमा और व्यवस्था की शुचिता से खेलने की ख्वाहिश करती हैं। कमजोर सरकार को इसकी हिम्मत नही होती न,वह समर्थक की सुनती है, विरोधी की सुनती है।हर सत्र में, हर बिल में, वोटिंग में सत्ता बचाने को नेगोशिएट करती है। हाँ, कुछ करोड़ नोट संसद लहराए गये। पर हजारों करोड़, केंद्र की अंटी से ढीले कर, स्टेट्स के प्रोजेक्ट्स में भी बहाए गए। ये रियल मनी था,रोजगार था, उत्पादन था। विकास था। आज, क्षेत्रीय दल नाम का प्रयोग मरणासन्न है। भाजपा अपने NDA साथी खा चुकी। कांग्रेस जबरजस्त उभार पर है। वो 2024 जीते या हारे, सर्वाइव करेगी, मजबूत ही होगी । पर क्षेत्रीय दल 2024 हारे, तो मिट जाएंगे। JDU, SP, BSP, NCP, , शिवसेना, तृणमूल, तेलगुदेशम रेड जोन में हैं। बाकी भी मरणासन्न होंगे।

यह सिनेरियो, एंकरेजिंग नही है। एक नेता, एक विचारधारा का राष्ट्रीय दल, 30 स्टेट की बहुरंगी जरूरतों को पूरा नही कर सकता। एक उपमहाद्वीप के 30 राज्यो की सुनने, समझने के लिए, स्थानीय स्वतंत्र नेतृत्व चाहिए। केंद्र में उनके समन्वय की सरकार चाहिए। एक राष्ट्रीय, कुछ क्षेत्रीय दल, उनके NDA-UPA जैसे फॉर्मेशन भारत के सबसे सुनहरे दौर की रेसिपी हैं।

रीजनल दल असल लोकतंत्र,
और फेडरलिज्म की रेसीपी है।

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