लेख

स्वत:स्फूर्त जन आंदोलन
पत्रकारों पर हमला आखिर कब तक ?


प्रदीप कुमार नायक
स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार


लोकतंत्र, प्रजातंत्र और आजादी का जोरदार ढंग से नगाड़ा पीटने वाले भारत में विगत कई वर्षों से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पत्रकारों के साथ दमनात्मक कार्रवाई,मारपीट यहाँ तक कि हत्या की घटना होते आ रहा हैं।अन्यायी,अत्याचारी,भ्रष्टाचारी, शोषक और अपराधियों के वंशजों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चप्पे-चप्पे पर अपना कब्जा जमा लिया हैं।पत्रकार अकेला नहीं हैं, अखबार के कॉलमों से लेकर ब्लागों और बेबसाइटो के बड़े नामों पर हर जगह वो लोग उन सभी पर एक साथ हल्ला बोल रहे हैं।जो अदालत के निर्णय के साथ या निरपेक्ष खड़े हैं।मुझे नहीं मालूम कि अभिव्यक्ति का ऐसा संकट आपातकाल में भी था कि नहीं ?


अफसोस इस बात का भी है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस मामले में आँखें मूंद कर तमाशा देख रहा हैं।कल एक पत्रकार पीट रहा था,उस वक़्त भी मुस्कुराते हुए तमाशा देख रहे थे।मौका मिलता तो अपनी तरफ से भी दो-चार थप्पड़ लगा देते।
भारत की मीडिया ने राजनीतिक पार्टियों की तरह साम्प्रदायिकता की अपनी-अपनी परिभाषाएं गढ़ ली हैं। कहीं पर वह भगवा बिग्रेड के साथ दिखाई पड़ता हैं तो कहीं पर अन्य के विरोध में इन दोनों ही स्थितियों में वह अक्सर अतिवादी हो जाता हैं।इन सबके बीच मीडिया की वह धारा कहीं नज़र नहीं आती जो कट्टरपंथ के विरुद्ध निरपेक्ष खड़ी हो।वह बटाला हाउस के इन काउंटर में हुई निर्दोषों की हत्याओं पर उतना ही चीखे जितना कश्मीरी पंडितों पर ढायें जाने वाले जुल्मों सितम पर।

यह हमारे समय का संकट हैं कि निरपेक्षता की परिभाषा के साथ प्रगतिशील और समाजवादी पत्रकारिता के नाम पर बार-बार बलात्कार किया जा रहा हैं।ऐसा अगर कुछ और सालों तक रहा तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में सिर्फ दो तरह के पत्रकार बचेंगे एक वह जो खुद को अस्तित्व में बचाएं रखने के लिए धर्म निरपेक्षता की चादर तान हिन्दुओं को गाली देते रहते हैं और उन्हें मुसलमानों का दुश्मन नम्बर एक करार देते हैं।दूसरें वह जिन्हें हर मुसलमान में आतंकवादी और देश द्रोही ही नज़र आता है और जो भगवा रंग को ही भारत भाग्य विधाता मान लेने का मुगालता पाल रखे है।


ये सरोकार से दूर होती जा रही समकालीन पत्रकारिता का स्याह चेहरा है। जहाँ हेमचन्द्र की हत्या पर जश्न मनाये जाते है।गिलानी की गमखोरी पर पुरस्कार बटोरे जाते है।वही एक पत्रकार के अपमान पर चुप्पी सांध ली जाती है।अब समय आ गया है कि अन्याय,अत्याचारी,भ्रष्टाचारी,शोषक और अपराधी और उनके वंशजों को उनकी औकात में लाया जाय।लेकिन इसके लिए सबसे पहले यह जरूरी होगा कि मीडिया खुद व खुद धर्म निरपेक्षता के पैमाने तय करे जो सर्व मान्य हो।


हमें यह भी तय करना होगा कि व्यवस्था को गाली देने के आड़ में कहीं राष्ट्र के अस्तित्व को ही तो चुनौती देने का काम नहीं किया जा रहा है।तब शायद यह सम्भव होगा कि हम में से कोई पत्रकार उठे और अपराधियों को हजारों-हजार लोगों की ताकत एक साथ दिखा दें।


अब राजनीति की शासन -प्रशासन तवा लाल होती दिख रही है और इसके कुशल रसोइये अपनी रोटियां सेंकने को आतुर हुए जा रहे है।लगभग तीन दशक से भी ज्यादा समय से भय,भूख व अपमान से आक्रांत पत्रकार जब अपने मान-सम्मान तथा सुरक्षा के लिए स्वत्: जगी तो सत्ता लोलुप ये रंगीन भेड़िये और प्रशासन पुनः अपनी दांतो में घास घोषकर निरीह पत्रकार का शुभ चिन्तक बनने चले आते है।
पत्रकार बड़ी भोली है,अतः आज हम पत्रकार, युवा तथा जनताओं पर एक गंभीर व बड़ी जिम्मेवारी आ पड़ी है कि वर्षो बाद कु:व्यवस्था एवं बेशर्म अन्यायी,अत्याचारी,भ्रष्टाचारी,शोषक,अपराधी और पत्रकार पर हमला के खिलाफ उपजी इस चिंगारी को हम अपनी हथेलियों की ओट दें ताकि हमारी स्वस्थ पत्रकारिता, राजनीतिक व सामाजिक मानसिकता साये तले यह स्वत्:स्फूर्त जन आंदोलन आग का रूप ले सके।


हमें सजग रहते हुए इस आंदोलन को आगे बढ़ाना होगा।क्योंकि एक तरफ सांपनाथ है तो दूसरी तरफ नागनाथ।वर्तमान परिस्थितियां हमें पुकार रही है।जरूरत है तो सिर्फ हमें आगे बढ़ने की।निश्चय ही हमारे पीछे परिवर्तनकारी जन सैलाव भी आयेगा।हमें आज नायक ढूढ़ने की जरूरत नहीं है।हमें खुद में सुसुरत पड़ी जज़्बा को जगाना भर है,फिर हर इकाई नेतृत्वकारी हो जाएगा।हमारी शहीद, युवा,जनता एवं पत्रकार की आवाज़ आज भी गूंज रही है।अपने बन्द घरों के दरवाजे खोलो और देखों एक साथ लाखों लोग और पत्रकार चौराहें पर आ मिलेंगे।


स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े प्रदीप कुमार नायक कहते है कि अब किसी भी कीमत पर देश के सभी प्रदेशों में पत्रकार सुरक्षा कानून लागू किए वैगर पत्रकारों की हित संभव नहीं है।देश के सभी पत्रकारों को भी अपनी एकता का परिचय देते हुए इस कानून को लागू कराने के लिए हम सभी सिर्फ और सिर्फ एक संगठन,एक बैनर तले स्वत्:स्फूर्त आंदोलन के द्वारा इस मांग को मनवाने के लिए एकता का परिचय दे।
पत्रकार सुरक्षा कानून एक मात्र हथियार है, जिससे कलम के सिपाहियों की रक्षा हो सकती है।पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने के लिए हमें कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है।यह हमारे वजूद और अस्तित्व की लड़ाई है।चौथा स्तम्भ के वजूद को बचाने के लिए हम सभी यह पहल करें।


कही ऐसा तो नहीं कि आजकल पत्रकार बंधु खासकर अखबार और क्षेत्रीय चैनल पूरी तरह से गाँधी जी के तीन बंदरों की तरह बुरा,देखने,बुरा सुनने और बुरा बोलने से परहेज करने लगे है।
पहले पत्रकार सरकारों को नंगा किया करते थे।अब पत्रकार को नंगा किया जा रहा है।जब किसी के साथ अन्याय होता है तो पत्रकार खड़ा होता है।परन्तु पत्रकार के साथ कौन ? सभी पत्रकारों से अपील है कि अपनी एकता दिखाएं।
लेखक – स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्र एवं चैनलों में अपनी योगदान दे रहे है।
मोबाइल – 8051650610

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